राजस्थान की प्रमुख प्राचीन सभ्यताए : Major Ancient Civilizations of Rajasthan .

By | June 3, 2021
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राजस्थान की प्राचीन सभ्यताए  

कालीबंगा (हनुमानगढ़)

  • कालीबंगा सभ्यता का काल कार्बन डेटिंग पद्धति के आधार पर 2350 ई. पूर्व से 1750 ई पूर्व माना जाता है ।
  • इस पुरातात्विक स्थल का ज्ञान सर्वप्रथम प्रसिद्ध भाषाशास्त्री एल.पी. टेस्सितौरी को हुआ ।
  • कालीबंगा की खोज सन् 1952 में श्री अमलानंद घोष ने की थी।
  • यहाँ का उत्खनन कार्य बी.बी. लाल एवं बी.के. थापर द्वारा 1961 से 1969 तक किया गया।
  • यह स्थल प्राचीन सरस्वती (वर्तमान घग्घर) नदी के बाँये तट पर हनुमानगढ़ जिले में है।
  • कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ – काले रंग की चुडिया होता है।
  • कालीबंगा को डॉ दशरथ शर्मा की पुस्तक ‘राजस्थान थ्रू द एजेज’ में सिंधु सभ्यता की तीसरी राजधानी कहा है।
  • देश की स्वतंत्रता के बाद कालीबंगा भारत का वह पहला पुरातात्विक स्थल है जिसका उत्खनन किया गया था। इसके बाद रोपड़ का उत्खनन किया गया था।
  • कालीबंगा को दीन-हीन की बस्ती भी कहते है।
  • कालीबंगा में दो टीलों पर उत्खनन कार्य किया गया। पहला टीला छोटा एवं अपेक्षाकृत ऊँचा है जो पश्चिमी की तरफ है तथा दूसरा पूर्व की तरफ अपेक्षाकृत बड़ा तथा नीचा है। दोनों टीले सुरक्षात्मक दीवार (परकोटा) से घिरे हुए हैं।
  • यह पूर्व और पश्चिम से पूरी तरह सुरक्षा दीवार से गिरा हुआ था।
  • इस सभ्यता में स्नानागार एवं कुओं के मिले जिनके निर्माण के लिए पक्की ईंटें प्रयुक्त की जाती थी।
  • यहाँ उत्खनन में परकोटे से बाहर एक दुहरे जुते हुए खेत (Plughed Field) के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो विश्व में जुते हुए खेत के प्राचीनतम प्रमाण हैं। खेत की जुताई आड़ी-तिरछी (ग्रिड-पैटर्न पर ) की गई है।
  • इस काल की महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि लोग एक ही खेत में एक बार में दो फसलें (सम्भवतः गेहूँ एवं जौ) उगाना जानते थे।
  • इस काल की एक अन्य विशेषता बेलनाकार तंदूर का मिलना है, जिनके नीचे पुताई की हुई है। गंगानगर हनुमानगढ़ क्षेत्र में आज भी इस प्रकार के तंदूर प्रयोग किये जाते हैं।
  • यह की नालिया लकड़ी की बनी हुई थी।
  • यह से छिद्रित खोपड़ी मिली जिससे यह शल्य चिकित्सा के प्रमाण मिले।
  • यहा उत्खनन में लाल या गुलाबी रंग के चाक निर्मित्त मृद्भाण्ड, साधारण तश्तरियाँ, टोंटीदार सँकड़े मुँह के घड़े, छोटे-बड़े आकार के मटके, पक्की मिट्टी से निर्मित्त त्रिभुजाकार केक, घीया पत्थर, तांबे तथा तामड़े पत्थर से बने मनके, शंख एवं तांबे की चूड़ियाँ, पक्की मिट्टी की खिलौना गाड़ी, पहिये, बैल को खण्डित मूर्ति, कड़े, हड्डियों से बनी सलाइयाँ, पत्थर के सिलबट्टे, मिट्टी की गेंद, तांबे का परशु (कुल्हाड़ी) आदि मिले हैं।
  • कालीबंगा के समाज में धर्मगुरु (पुरोहित), चिकित्सक, कृषक, कुंभकार, बढ़ई, सुनार, दस्तकार, जुलाहे, ईंट एवं मनके निर्माता, मुद्रा (मोहरें) निर्माता, व्यापारी आदि धन्धों के लोग निवास करते थे। कालीबंगा वासियों के नागरिक जीवन में त्योहार एवं धार्मिक उत्सवों का पर्याप्त महत्त्व था।
  • कालीबंगा के निवासियों की तीन प्रकार की समाधियाँ (कब्रे) मिली हैं पहली शवों को अण्डाकार खड्डे में उत्तर की ओर सिर रखकर मृत्यु संबंधी उपकरणों के साथ गाड़ते थे। दूसरे प्रकार की समाधियों में शव को टाँगे समेटकर गाड़ा जाता था। तीसरे प्रकार में शव के साथ बरतन और एक-एक सोने व मणि के दाने की माला से विभूषित कर गाड़ा जाता था।
  • यहाँ की लिपि दाँये से बाँये लिखी प्रतीत होती है साथ ही अक्षर एक-दूसरे के ऊपर खुदे हुए प्रतीत होते हैं।
  • कालीबंगा के निवासी बहुत से पशु पालते थे, ये भेड़-बकरी, गाय, भैंस, बैल, भैंसा तथा सुअर आदि पशुओं को पालते थे। कालीबंगा के निवासी ऊँट भी पालते थे। कुत्ता भी उनका पालतू जीव था।
  • कालीबंगा उत्खनन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह भी है कि इसने सैन्धव लिपि की पहचान करने के प्रयास में एक ठोस दिशा-निर्देश प्रस्तुत किया है। यहाँ से प्राप्त एक सैन्धव लिपि युक्त मृद्पात्र पर लिपि की ओवर लैपिंग (एक-दूसरे पर आये अक्षर) ने यह सिद्ध कर दिया है कि यह लिपि दाहिने से बायें की ओर लिखी जाती थी।
  • राज्य सरकार द्वारा कालीबंगा में प्राप्त पुरावशेषों के संरक्षण हेतु वहाँ एक संग्रहालय की स्थापना कर दी गई है।
  • संभवत् भूकम्प या भूगर्भीय व जलवायु के परिवर्तन के कारण इस समृद्ध नगरीय सभ्यता के केन्द्र का नाश हो गया था। जो समुद्री हवाएँ पहले इस ओर नमी-युक्त बहती थीं, वे हवाएँ कच्छ के रन से गुजर कर सूखी चलने लगीं संभवतया इसीलिए यह क्षेत्र धीरे-धीरे रेत का समन्दर बन गया। इस क्षेत्र में बहने वाली सरस्वती नदी का जो वर्णन हमें पुराणों में मिलता है, वह धीरे-धीरे रेत के समन्दर में लुप्त हो गई । भूकम्प के प्राचीनतम साक्ष्य यहीं मिलते हैं।

आहड़ (उदयपुर)

  • आहड़ सभ्यता उदयपुर की आयड नदी के किनारे स्थित है।
  • पं. अक्षयकीर्ति व्यास को सर्वप्रथम 1953 ई. में यहाँ लघु स्तर पर उत्खनन करवाने का श्रेय है।
  • उदयपुर के निकट आयड़ नदी के किनारे ‘धूलकोट’ का व्यापक उत्खनन सर्वप्रथम आर.सी. अग्रवाल ने 1954 में कराया तथा बाद में 1961-62 में वी.एन. मिश्रा एवं एच.डी. सांकलिया द्वारा उत्खनन करवाया गया।
  • आहड़ का प्राचीन नाम ताम्रवती नगरी था। 10वीं-11वीं शती में यह आघाटपुर (आघाट दुर्ग) के नाम से भी जाना जाता था।
  • इस सभय्ता के बहुत से अन्य नाम है – आघाटपुर की सभ्यता , बड़े मृदभांडों की सभ्यता , कोठ – गोरे की सभ्यता , धुलकोट की सभ्यता
  • इसे डॉ. साँकलिया ने आहड़या या बनास संस्कृति कहा है। यह एक ग्रामीण संस्कृति थी।
  • आहड़ सभ्यता के तीन चरणों का ज्ञान हुआ है। प्रथम चरण में स्फटिक पत्थरों के प्रयोग की बहुतायत रही थी तथा इन्हीं से विभिन्न औजार व उपकरण बनाये जाते थे। द्वितीय चरण में ताम्र-कांस्य व लौह युग के उपकरण प्राप्त हुए हैं।
  • यहाँ के मकान मिट्टी व पत्थरों के बने होते थे, जिन्हें बाँस से ढंका जाता था। फर्श चिकनी काली मिटटी का था। फर्श चिकनी काली मिट्टी व पीली मिट्टी मिलाकर कूट-कूट कर बनाई जाती थी। मकानों की छत घासबाँस-बल्लियों की सहायता से हल्के वजन की बनाई जाती थी, जो दोनों ओर से ढलवाँ होती थी।
  • यह के मकान अधिकांशत आयताकार होते थे। मकानों में एक अधिकचल्हे मिले हैं जो शायद बड़े परिवार या सामूहिक भोजन व्यवस्था को इंगित करते हैं। एक घर में एक साथ 6 चल्डे जीपाप्त हए हैं तथा इनमें से एक पर मानव हथेली की छाप भी प्राप्त हुई है। यहाँ कुछ अनाज रखने के बड़े भाण्ड भी गढे हए मिले हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘गौरे’ व ‘कोठे’ कहा जाता था।
  • यहाँ खुदाई में 6 तांबे की मुद्राएँ व 3 मुहरें, स्फटिक आदि की गोल मणियाँ,लाल व काले व भूरे चित्रित मृदभाण्ड,मसल,बिना दत्थे के छोटे जलपात्र आदि मिले हैं। ऐसे जलपात्र ईरान में भी मिले हैं जो यहाँ का संबंध ईरान से होने के संकेत देते हैं।
  • यहा एक घर में तांबा गलाने की भट्टी भी मिली जिससे पता चलता है की यह का प्रमुख उद्योग तांबा गलाना और उससे उपकरण बनाना था।
  • बिना हत्थे के पानी के बर्तन की प्राप्त हुए है जो ईरान की सभ्यता से भी प्राप्त हुए थे जो इसका आपस में सबंध दर्शाता है।
  • यह हेराकोटा से निर्मित वर्षभ की आकृति की मूर्ति मिली जिसे बनासियां बुल कहा गया है।
  • गोपीनाथ शर्मा के अनुसार आयड़ नदी में बाद आने से इस सभ्यता का अंत हुआ।

गिलूण्ड (राजसमन्द)

  • राजसमंद जिले में बनास नदी के तट से कुछ दूरी पर स्थित गिलूण्ड में पुरातात्विक टीले का उत्खनन श्री बी.बी. लाल द्वारा किया गया।
  • इस स्थान में चूने के प्लास्टर एवं कच्ची दीवारों का प्रयोग होता था। गिलूण्ड में काले एवं लाल रंग के मृदभाण्ड मिले हैं। इस स्थल पर 100×80 फीट आकार के एक विशाल भवन के अवशेष मिले हैं जो ईंटों से बना हुआ है। आहड़ में इस आकार के भवनों के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं।

ओझियाना (भीलवाड़ा)

  • आहड़ संस्कृति से संबंधित यह पुरातात्विक स्थल भीलवाड़ा जिले में बदनोर के पास स्थित है।
  • यह का उत्खनन बी.आर. मीणा व आलोक त्रिपाठी ने सन् 2000 ई. में किया।
  • यहाँ से प्राप्त गाय की लघु मीणकृति (मृण्मूर्ति) बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह स्थल आहड़ सभ्यता-संस्कृति का ही एक अन्य स्थल है।
  • खुदाई में बड़ी मात्रा में कई आकार-प्रकार के मिट्टी के बैलों की आकृतियाँ मिली हैं जिन पर की गई सफेद रंग की चित्रकारी इस सभ्यता को तत्कालीन अन्य सभ्यताओं से अलग करती है। ये सफेद चित्रित बैल ओझियाना बुल’ नाम से प्रसिद्ध हैं। इस स्थल पर प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर अनुमान है कि इस सभ्यता का काल 2500 ई. पूर्व से 1500 ई. पूर्व का रहा होगा।

लाछूरा (भीलवाड़ा)

  • भीलवाड़ा जिले की आसींद तहसील के गाँव लाछूरा के पास भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग (ASI) द्वारा 1998 में श्री बी.आर. मीना के निर्देशन में उत्खनन कार्य संपन्न करवाया गया।
  • उत्खनन में प्राप्त अवशेषों में यहाँ 7वीं सदी ई.पूर्व से लेकर दूसरी सदी (700 B.C. से 200 A.D.) तक की सभ्यताओं के प्रमाण मिले हैं। ये सभी अवशेष चार कालों (Four Periods) में वर्गीकत किये गये हैं। यहाँ शंगकालीन तीखे किनारे वाले प्याले (bowls), आदि मिले हैं।
  • प्रथम स्तर में 700 BC से 500 BC तक के काल की सामग्री प्राप्त हुई है, जिनमें मिट्टी की मानव आकृतियाँ प्रमुख हैं। खुदाई में मिले काले व लाल रंग के मृद्भाण्ड व ताँबे के बर्तन से अनुमान है कि यहाँ ताम्रयुगीन सभ्यता पनपी थी।

बालाथल (उदयपुर)

  • उदयपुर जिले में बालाथल गाँव के पास एक टीले के उत्खनन से यहाँ ताम्र-पाषाणकालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
  • इस सभ्यता की खोज डॉ. वी.एन. मिश्र ने 1962-63 में की थी।तथा उत्खनन कार्य 1993 ई. में डा. वी.एन. मिश्र के निर्देशन में डॉ. वी.एस. शिंदे, डॉ. आर.के. मोहन्ती एवं डॉ. देव कोठारी द्वारा किया गया।
  • बालाथल के उत्खनन से वहाँ एक विशाल भवन के अवशेष मिले हैं, जिसमें 11 कमरे विद्यमान हैं । इसका निर्माण सभवतः ताम्रपाषाण काल की द्वितीय अवस्था में हआ है। इसके अलावा खदाई में एक दर्ग जैसी इमारत के अवशेष शामिल है, जिसका निर्माण मिट्टी की एक मोटी दीवार से हुआ है।
  • बालाथल में अधिकांश उपकरण एवं औजार ताँबे के बने हैं। संभवतःयहा ताँबे की प्रचुरता से उपलब्धता रही होगी।
  • यह का जीवन मछली पकड़ना और कृषि पर आधारित था।
  • बालाथल के उत्खनन में लोहा गलाने की भट्टी के अवशेष मिले हैं।
  • यहाँ खुदाई में एक वस्त्र का टकडा भी मिला है. जिससे ज्ञात होता है कि यहाँ के निवासी वस्त्र बुनना भी जानते थे। बैराठ के अलावा बुने हुए वस्त्र का अवशेष बालाथल में ही मिला है। बालाथल संस्कृति आहड़ सभ्यता के पश्चात्वर्ती काल की संस्कृति थी, जो आहड़ संस्कृति से स्वतंत्र रूप से विकसित हुई थी।

गणेश्वर सभ्यता  

  • यह सभ्यता सीकर जिले के नीम का थाना कस्बे पर काँतली नदी के किनारे स्थित थी।
  • यह ताम्रयुगीन संस्कृतियों में सबसे प्राचीन सभ्यता है। गणेश्वर में श्री रतनचन्द्र (RC) अग्रवाल व श्री विजय कुमार के निर्देशन में वर्ष 1977-78 में खुदाई की गई।
  • गणेश्वर सभ्यता को निर्विवाद रूप से भारत में ताम्र युगीन संस्कृतियों की जननी कहा जा सकता है।
  • यहा उत्खनन से ताम्रयुगीन उपकरण-कल्हाडे, तीर, भाले, सूइयाँ, चूड़ियाँ एवं अन्य उपकरण आदि बड़ी मात्रा में मिले हैं।
  • इनमें मछली पकड़ने के काँटे, फरसे,बाणान आदि प्रमुख उपकरण व ताम्र आभूषण हैं।
  • मछली पकड़ने के कांटे मिलने से अनुमान है कि उस समय काँतली नदी में पर्याप्त जल था।
  • उत्खनन में गणेश्वर से जो मृत्पात्र मिले हैं वे कपिषवर्णी मृत्पात्र कहलाते हैं । मृत्पात्रों में प्याले, तश्तरियाँ व कूण्डियाँ प्रमुख हैं। इस समय मानव मृद्भाण्ड कला में सिद्धहस्त हो चुका था।
  • गणेश्वर सभ्यता के लोग गाय-बैल, भेड़, बकरी, सूअर, कुत्ता, गधे, मुर्गे आदि पशुओं/पक्षियों को पालते थे। ये लोग प्रायः मांसाहार का प्रयोग भी करते थे।

रंगमहल (हनुमानगढ़)

  • रंगमहल हनुमानगढ़ जिले में प्राचीन सरस्वती (वर्तमान घग्घर) नदी के पास स्थित है
  • यहां डॉ.हन्नारिड के निर्देशन में एक स्वीडिश एक्सीपीडिशन दल द्वारा 1952-54 ई. में खुदाई की गई।
  • उत्खनन में यहाँ बसने वाली बस्तियों के तीन बार बसने और उजड़ने के अवशेष मिले हैं, परन्तु इन तीनों बस्तियों के मृद्भाण्डों में कोई विशेष अंतर नहीं दिखाई पड़ता, सिवाय इसके कि प्राचीन समय के मृद्भाण्ड मोटे व खुरदरे होते थे तथा समय के साथ इनमें दृढ़ता व अलंकरण बढ़ता गया।
  • यहाँ मिली हुई विभिन्न मृण्मूर्तियाँ गांधार शैली की मालूम होती हैं। मूर्तियों में एक मूर्ति शिष्य और शिक्षक की है।
  • रंगमहल में मंदिर भी थे। वहाँ धूप, दीप, नैवेद्य आदि की व्यवस्था रहने के प्रमाण मिले हैं।

नोह (भरतपुर )

  • यह स्थल रूपारेल नदी के तट पर स्थित है।
  • यहाँ 1963-67 में राजस्थान सरकार के पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा श्री रतनचन्द्र अग्रवाल एवं कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ. डेविडसन के संयुक्त निर्देशन में उत्खनन करवाया गया था।
  • उत्खनन में यहाँ कपिषवर्णी मृत्पात्रों का भण्डार मिला है। नोह में उत्खनन में ताम्र सामग्री प्राप्त नहीं हुई है। नोह के द्वितीय निवास काल में काले एवं लाल रंग के मृपात्र मिले हैं।
  • नोह के काले एवं लाल मृत्पात्रों के स्तर से लोहे के छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में लोहे की उपस्थिति के कुछ प्रमाण प्राप्त हुए हैं जो देश में लौह युग (Iron Age) के प्रारंभ की प्राचीनतम सीमा रेखा निर्धारण के सूचक हैं।
  • नोह में इसके बाद के स्तरों में एक नई सभ्यता का पता चलता है जिसे सलेटी रंग की चित्रित मृद्भाण्ड (Painted Greyware : PWG) सभ्यता कहा जाता है।

बैराठ

  • बैराठ सभ्यता बाणगंगा नदी के किनारे विकसित हुई।
  • राज्य के जयपुर जिले के शाहपुरा उपखण्ड में बैराठ कस्बा, जिसे प्राचीनकाल में विराटनगर’ कहा जाता था, एक महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक स्थल है। महाजनपदकाल में यह मत्स्य जनपद की राजधानी था।
  • प्राचीन मत्स्य जनपद की राजधानी विराटनगर में बीजक की पहाड़ी, भीमजी की डूंगरी तथा महादेव जी की डंगरी आदि स्थानों पर उत्खनन कार्य प्रथम बार दयाराम साहनी द्वारा 1936-37 में तथा पुनः 1962-63 में पुरातत्वविद् नीलरल बनर्जी तथा कैलाशनाथ दीक्षित द्वारा किया गया।
  • इसे महाभारतकालीन , उतर वैदिककालीन , महाजनपदकालीन , लौह कालीन , मौर्यकालीन सभ्यता भी कहते है।
  • खुदाई करने पर मौर्यकालीन एवं उसके पूर्व की सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं। यहाँ सूती कपड़े में बँधी मुद्राएँ व पंचमार्का सिक्के मिले हैं। इस क्षेत्र से पुरातात्विक सामग्री का विशाल भंडार प्राप्त हुआ है।
  • चीन का प्रसिद्ध यात्री ह्वेनसांग भी संभवतः सन् 634 के लगभग अपनी यात्रा के दौरान यहाँ आया था। उसने यहाँ बौद्ध मठों की संख्या 8 लिखी थी।
  • यहा मौर्यकाल में बौद्ध धर्मानुयायियों के लिए एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित था तथा स्वयं मौर्य सम्राट अशोक का इस क्षेत्र से विशेष लगाव था।
  • इस कस्बे का विराटनगर नाम से उल्लेख महाभारत में कई बार हुआ है। मत्स्य जनपद के राजा विराट के यहाँ पांडवों ने अपने अज्ञातवास के अन्तिम दिन व्यतीत किये थे। वैसे बैराठ मौर्यकाल और मौर्योत्तर काल के अवशेषों का भी साक्षी रहा है। यहाँ मुगलकालीन छतरी तथा एक सराय (Lodge) के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। कहा जाता है कि मुगल सम्राट अकबर अजमेर की यात्रा के दौरान यहाँ रात्रि विश्राम करता था।
  • यहां उत्खनित कमरों से 36 चाँदी की मुद्राएँ मिली हैं, जिनमें 8 पंचमार्क हैं। शेष 28 मुद्रायें यूनानी और भारतीय-यूनानी शासकों की हैं। जस कपड़े में मुद्रा बंधी हुई मिली है, यह कपड़ा हाथ से बुनी रूई का था। इससे विदित होता है कि यहाँ के निवासी वस्त्र-बुनाई कला को जानते थे।
  • यहाँ सवार रामसिंह के शासनकाल में की गई खदाई में एक स्वर्ण मंजूषा प्राप्त हुई है जिसमें भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेष थे।

बागोर

  • भीलवाड़ा के कोठरी नदी के किनारे बागोर सभ्यता स्थित है।
  • भीलवाड़ा जिले की माण्डल तहसील में कोठारी नदी के तट पर स्थित इस पुरातात्विक स्थल का उत्खनन 1967-68 से 1969-70 की अवधि में राजस्थान राज्य पुरातत्व विभाग एवं दक्कन कॉलेज, पुणे के तत्त्वावधान में श्री वी.एन. मिश्र एवं डॉ. एल.एस. लेशनि के नेतृत्व में हुआ है, जहाँ मध्य पाषाणकालीन (Mesolithic) लघु पाषाण उपकरण व वस्तुएँ (Microliths) प्राप्त हुई हैं।
  • बागोर में उत्खनन में पाषाण उपकरणों के साथ-साथ एक मानव कंकाल भी प्राप्त हुआ है।
  • राजस्थान के पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य यहा से मिले है।
  • यहाँ पाये गये लघु पाषणा उपकरणों में ब्लेड, छिद्रक, स्क्रेपर, बेधक एवं चांद्रिक आदि प्रमुख हैं। ये पाषाण उपकरण चर्ट, जैस्पर, चाल्डेसनी, एगेट, क्वार्टजाइट, फ्लिंट जैसे कीमती पत्थरों से बनाये जाते थे। ये आकार में बहुत छोटे आधे से पौने इंच के औजार थे। ये छोटे उपकरण संभवतः किसी लकड़ी या हड्डी के बड़े टुकड़ों पर आगे लगा दिये जाते थे।
  • बागौर में मध्यपाषणाकालीन पुरावशेषों के अलावा लौह युग के उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। इस सभ्यता के प्रारंभिक निवासी आखेट कर अपना जीवन यापन करते थे। परवर्ती काल में वे पशुपालन करना सीख गये थे। बाद में उन्होंने कृषि कार्य भी सीख लिया था।

नगरी (चित्तौड़गढ़)

  • चित्तौड़गढ़ से 13 किमी दूर नगरी (प्राचीन मध्यमिका या मज्झमिका) की खुदाई सर्वप्रथम 1904 में डॉ.डी.आर. भण्डारकर ने करवाई तथा दुबारा 1962-63 में केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा करवाई गई।
  • यहाँ शिवि जनपद के सिक्के मिले हैं जिनसे इस क्षेत्र पर शिवि जनपद होना सबित होता है।
  • यहाँ गुप्तकालीन कला के अवशेष भी मिले हैं। यहाँ कुषाण कालीन स्तरों में नगर की सुरक्षा के निमित्त एक मजबूत दीवार भी बनाई जाने के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

जोधपुरा (जयपुर)

  • साबी नदी के किनारे जयपुर जिले की कोटपुतली तहसील के ग्राम जोधपुरा के प्राचीन टीले की खुदाई 1972-73 में राजस्थान परातत्त्व विभाग द्वारा श्री आर.सी. अग्रवाल एवं श्री विजय कुमार के निर्देशन में करवाई गई।
  • यह एक ताम्रयुगीन प्राचीन मभ्यता स्थल है।
  • जोधपुरा में ताम्रयुगीन सभ्यता के प्रतीक कपिषवर्णी मृद्पात्रों का डेढ़ मीटर का जमाव प्राप्त हुआ है, जिसे पन: चार स्तरों में विभाजित किया गया है।
  • यहाँ मकान की छतों पर टाइल्स का प्रयोग एवं छप्पर छाने का रिवाज था। उत्खनन में यहाँ से प्राप्त ताम्र युगीन मृदपात्रों पर सिंधु घाटी सभ्यता का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। जोधपुरा में अन्य मृद्पात्रों के अलावा ‘डिश ऑन स्टेण्ड’ भी प्राप्त हुआ है।
  • इस संस्कृति के मानव ने घोड़े का उपयोग रथ के खींचने में करना प्रारंभ कर दिया था।
  • सुनारी एवं जोधपुरा के उत्खनन से इस स्तर में जो महत्वपूर्ण साक्ष्य प्राप्त हुए हैं वह है- लौह अयस्क से लौह धातु का निष्कर्षण करने वाली भट्टियाँ।

सुनारी (खेतड़ी-झुंझुनूं)

  • इस स्थल का उत्खनन 1980-81 में राजस्थान राज्य पुरातत्त्व विभाग द्वारा करवाया गया।
  • यहाँ खुदाई में लोहे के अयस्क से लोहा बनाने की प्राचीनतम भट्टियाँ मिली हैं । लोहे के शस्त्र एवं बर्तन भी यहाँ प्राप्त हुए हैं। ये लोग चावल का प्रयोग करते थे तथा आखेट एवं कृषि पर निर्भर थे।
  • सुनारी में भी जोधपुरा, नोह एवं विराटनगर की तरह सलेटी रंग के चित्रित मृद्भाण्ड की संस्कृति (लौह युगीन संस्कृति) के पुरावशेष बड़ी मात्रा में प्राप्त हुए हैं। सुनारी में लौह अयस्क से लौह धातु प्राप्त करने की खुली धमन भट्टी एवं लौह धातु से लौह उपकरण बनाने की धौंकनी वाली भट्टी अलग-अलग प्राप्त हुई हैं। सुनारी के उत्खनन में प्राप्त इस प्रकार की भट्टियाँ भारत की प्राचीनतम भट्टियों में गिनी जाती हैं। सुनारी में भट्टियों में लौह अयस्क प्राप्त करने हेत उपलों का प्रयोग किया जाता था।
  • यहाँ अन्य लौह उपकरणों के अलावा लोहे से बना एक प्याला (कटोरा ) भी प्राप्त हुआ है। इन स्तरों से इस प्रकार का प्याला संपूर्ण भारत में केवल यहीं प्राप्त हुआ है। यह सलेटी चित्रित मृद्भाण्डों में उपलब्ध प्याले के समकक्ष ही है।

तिलवाड़ा

  • बाड़मेर जिले के लूनी नदी के किनारे बसे इस स्थल पर राजस्थान राज्य पुरातत्त्व विभाग द्वारा वर्ष 1967-68 में करवाये गये उत्खनन से ई. पूर्व 500 से ईस्वी सन् 200 तक की अवधि में विकसित सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं।

रैढ़ (टोंक)

  • टोंक जिले की निवाई तहसील में ढील नदी के किनारे स्थित इस गाँव में पूर्व गुप्तकालीन सभ्यता तक के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
  • इसकी खुदाई 1938-39 में दयाराम साहनी ने तथा उसके बाद डॉ. केदारनाथ पुरी ने 1938 – 1940 के मध्य करवाई।
  • यहाँ मालव जनपद की मुद्राएँ एवं लौह सामग्री का विशाल भंडार मिला है। इसे ‘प्राचीन भारत का टाटानगर’ कहा जाता है।
  • यहाँ एशिया का अब तक का सबसे बड़ा सिक्कों का भंडार मिला है।
  • रैढ़ से प्राप्त सीसे की मुद्रा पर ब्राह्मी लिपि में मालव जनपदस’ अंकित है जो यह दर्शाता है कि यह क्षेत्र ईसा पूर्व की प्रथम शती में ‘मालव जनपद’ के नाम से जाना जाता था।
  • दीपक, शराबक, सुराहियाँ, हांडियां, कटोरे, संकरे मुंह के घड़े, लोटे, बंदर की आकृति के बर्तन, नालीदार कटोरे आदि प्रमुख मृद्भाण्ड हैं । रेढ़ के मृद्भाण्डों में गोल ‘रिंग वेल्स’ जो एक दूसरे पर लगा दिये जाते थे, विशिष्ट हैं।
  • यहाँ लोहे के गलाने के कई प्रमाण मिले हैं तथा उसके अवशेष के कई ढेरों से ज्ञात होता है कि रेढ़ लोहे के उपकरण बनाने का एक बड़ा केन्द्र रहा होगा।यह एक लौहयुगीन सभ्यता थी।

नगर ( टोंक )

  • टोंक जिले के उणियारा कस्बे के पास स्थित इस कस्बे, जिसका प्राचीन नाम ‘मालव नगर’ था, में बड़ी संख्या में मालव सिक्के एवं आहत मुद्राएँ मिली हैं जो ईसा पूर्व की द्वितीय शताब्दी से लेकर ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी तक की सभ्यता के प्रमाण हैं। यह स्थान मालव गणराज्य की राजधानी था।
  • इस लौहयुगीन पुरातात्विक स्थल का प्रथम बार उत्खनन सन् 1942-43 में श्रीकृष्ण देव द्वारा करवाया गया था। उसके बाद नवीनतम उत्खनन कार्य सन् 2008-09 में श्री टी.जे. अलोन के निर्देशन में मनोज द्विवेदी, शिवकुमार भगत एवं श्री प्रवीण सिंह आदि द्वारा किया गया।
  • इस स्थल का प्राचीन नाम करकोटा (Karkota) नगर था।
  • यहाँ उत्खनन में 2 हजार वर्ष पूर्व की महिषासुरमर्दिनी की मृण्मति प्राप्त हुई है जो इस देवी का प्राचीनतम अंकन है।

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