Rajasthan gk : राजस्थान की प्रमुख भाषा एवं बोलियाँ : (Major Languages ​​and Dialects of Rajasthan)

By | August 13, 2021
Rajasthan ki pramukh boliya

राजस्थानी भाषा का उद्गम व विकास

राजस्थानी भाषा के उद्भव एवं विकास का गौरवमयी इतिहास है। राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति सौरसेनी भाषा के गुर्जर अपभ्रंश से मानी जाती है। कुछ विद्वान इसे नागर अपभ्रंश से उत्पन्न हआ भी मानते हैं। राजस्थान के निवासियों की मातृभाषा राजस्थानी है। भाषा विज्ञान के अनुसार राजस्थानी भारोपीय भाषा परिवार के अन्तर्गत आती है। राजस्थानी भाषा को वि.सं. 835 (सन् 778 ई.) में उद्योतन सूरी द्वारा लिखित कुवलयमाला में वर्णित 18 देशी भाषाओं में ‘मरुभाषा’ को भी शामिल किया गया है जो पश्चिमी राजस्थान की भाषा थी और इसी प्रकार कवि कुशललाभ के ग्रंथ ‘पिंगल शिरोमणि’ तथा अबुल फज़ल के ‘आइने-अकबरी’ में भी मारवाडी’ भाषा शब्द प्रयुक्त किया गया है। अबुल फजल ने प्रमुख आर्यभाषाओं में मारवाड़ी भाषा को भी शामिल किया है। यहाँ की भाषा के लिए राजस्थानी’ शब्द सर्वप्रथम जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1912 ई. में Linguistic Survey of India’ गंथ में प्रयुक्त किया जो इस प्रदेश में प्रचलित विभिन्न भाषाओं का सामूहिक नाम था।

राजस्थानी के विकास को निम्न चरणों में स्पष्ट किया जा सकता है

(1) गुर्जर-अपभ्रंश -11वीं से 13वीं सदी

(2) प्राचीन राजस्थानी – 13वीं से 16वीं सदी

(3) मध्य राजस्थानी – 16वीं से 18वीं सदी

(4) अर्वाचीन (आधुनिक) राजस्थानी – 18वीं सदी से अब तक

राजस्थानी भाषा का वर्गीकरण –

डॉ. जॉर्ज अबाहम ग्रियर्सन प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने अपनी पुस्तका Linguistic Survey of India की नौंवी जिल्द के दूसरे भाग में राजस्थानी का स्वतंत्र भाषा के वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने राजस्थानी भाषा की पाँच उपशाखाएँ निम्न प्रकार बताई हैं:-

(1) पश्चिमी राजस्थानी – इसकी प्रतिनिधि बोलियाँ – मारवाडी. मेवाडी.बागड़ी एवं शेखावाटी हैं।

(2) मध्य-पूर्वी राजस्थानी – इसकी मुख्य बोलियाँ – ढूंढाड़ी व हाड़ौती हैं।

(3) उत्तरी-पूर्वी राजस्थानी- इसमें मेवाती एवं अहीरवाटी को शामिल किया गया है।

(4) दक्षिणी-पूर्वी राजस्थानी – इसकी मुख्य बोलियाँ मालवी तथा नीमाड़ी हैं। (

(5) दक्षिणी राजस्थानी

डॉ. एलपी टेस्सीटौरी ने राजस्थानी की बोलियों को निम्न दो भागों में बाँटा हैं-

1. पश्चिमी राजस्थानी — शेखावाटी, जोधपुर की खडी राजस्थानी, ढटकी, थली, बीकानेरी, किशनगढ़ी, खैराड़ी, सिरोही की बोलियाँ – गौड़वाड़ी एवं देवड़ावाटी

2. पूर्वी राजस्थानी (ढूँढाड़ी) — तोरावाटी, खड़ी जयपुरी, काठेड़ी, अजमेरी, राजावाटी, चौरासी, नागरचौल, हाड़ौती आदि।

राजस्थान की प्रमुख बोलियाँ व उनके क्षेत्र

  • मारवाड़ी — मारवाड़ी इसका प्राचीन नाम मरुभाषा है जो पश्चिमी राजस्थान की प्रधान बोली है। मारवाड़ी का आरम्भ काल 8वीं सदी से माना जा सकता है। कुवलयमाला में इसे मरुभाषा कहा गया है. विस्तार एवं साहित्य दोनों ही दष्टियों से मारवाड़ी राजस्थान की सर्वाधिक समृद्ध एवं महत्त्वपूर्ण भाषा है। इसका विस्तार जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, पाली. नागौर, जालौर एवं सिरोही जिलों तक है। मारवाडी के साहित्यिक रूप को ‘डिंगल’ कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति गुर्जरी अपभ्रंश से हुई है। जैन साहित्य एवं मीराँ के अधिकांश पद इसी भाषा में लिखे गए हैं । राजिये रा सोरठा, वेलि किसन रुक्मणीरी, ढोला मारवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य मारवाडी भाषा में ही रचित हैं। इसकी उत्पत्ति शौरसैनी के गुर्जरी अपभ्रंश से मानी जाती है। मारवाड़ी की बोलियाँ : मेवाड़ी, बागड़ी,शेखावाटी, बीकानेरी, ढटकी, थली, खैराड़ी, नागौरी, देवड़ावाटी, गौड़वाड़ी
  • मेवाड़ी : उदयपुर एवं उसके आसपास के क्षेत्र को मेवाड़ कहा जाता है, इसलिए यहाँ की बोली मेवाड़ी कहलाती है। यह मारवाड़ी के बाद राजस्थान की महत्त्वपूर्ण बोली है। मेवाड़ी बोली के विकसित और शिष्ट रूप के दर्शन हमें 12वीं-13वीं शताब्दी में ही मिलने लगते हैं। मेवाड़ी का शुद्ध रूप मेवाड़ के गाँवों में ही देखने को मिलता है। मेवाड़ी में लोक साहित्य का विपुल भण्डार है। महाराणा कुंभा द्वारा रचित कुछ नाटक इसी भाषा में हैं। 
  • ढूँढाड़ी : उत्तरी जयपुर को छोड़कर शेष जयपुर, किशनगढ़, टोंक, लावा तथा अजमेर-मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाने वाली भाषा ढूंढाड़ी कहलाती है। इस पर गुजराती, मारवाड़ी एवं ब्रजभाषा का प्रभाव समान रूप से मिलता है। ढूँढाड़ी में गद्य एवं पद्य दोनों में प्रचुर साहित्य रचा गया। संत दादू एवं उनके शिष्यों ने इसी भाषा में रचनाएँ की। इस बोली को जयपुरी या झाड़शाही भी कहते हैं। ढूँढाड़ी का बोली के लिए प्राचीनतम उल्लेख 18वीं शती की ‘आठ देस गूजरी’ पुस्तक में हुआ है। ढूंढाड़ी की प्रमुख बोलियाँ- तोरावाटी, राजावाटी, चौरासी (शाहपुरा), नागरचोल, किशनगढ़ी, अजमेरी, काठेड़ी, हाड़ौती।
  • वागड़ी : डूंगरपुर एवं बाँसवाड़ा के सम्मिलित राज्यों का प्राचीन नाम वागड़ था। अत: वहाँ की भाषा वागड़ी कहलायी, जिस पर गुजराती का प्रभाव अधिक है। यह भाषा मेवाड़ के दक्षिणी भाग, दक्षिणी अरावली प्रदेश तथा मालवा की पहाड़ियों तक के क्षेत्र में बोली जाती है।यह भीलों में भी प्रचलित है । भीली बोली इसकी सहायक बोली है। 
  • तोरावाटी : झुंझुनूं जिले का दक्षिणी भाग, सीकर जिले का पूर्वी एवं दक्षिणी-पूर्वी भाग तथा जयपुर जिले के कुछ उत्तरी भाग को तोरावाटी कहा जाता है। अतः यहाँ की बोली तोरावाटी कहलाई। काठेडी बोली जयपुर जिले के दक्षिणी भाग में प्रचलित है जबकि चौरासी जयपुर जिले के दक्षिणी-पश्चिमी एवं टोंक जिले के पश्चिमी भाग में प्रचलित है। नागरचोल सवाईमाधोपुर जिले के पश्चिमी भाग एवं टोंक जिले के दक्षिणी एवं पूर्वी भाग में बोली जाती है। जयपुर जिले के पूर्वी भाग में राजावाटी बोली प्रचलित है। 
  • हाडौती : हाड़ा राजपूतों द्वारा शासित होने के कारण कोटा, बूंदी, बारां एवं झालावाड़ का क्षेत्र हाडौती कहलाया और यहाँ की बोली हाड़ौती, जो ढूंढाड़ी की ही एक उपबोली है। हाड़ौती का भाषा के अर्थ में प्रयोग सर्वप्रथम के लॉग की हिन्दी ग्रामर में सन 1875 ई. में किया गया। इसके बाद अब्राहम ग्रियर्सन ने अपने ग्रंथ में भी हाड़ौती को बोली के रूप में मान्यता दी। सूर्यमल्ल मिश्रण की अधिकांश रचनाएँ हाडौती भाषा में है। वर्तमान में हाड़ौती कोटा, बूंदी (इन्द्रगढ़ एवं नैनवा तहसीलों के उत्तरी भाग को छोड़कर), बाराँ (किशनगंज एवं शाहबाद तहसीलों के पूर्वी भाग के अलावा) तथा झालावाड़ के उत्तरी भाग की प्रमुख बोली है। हाडौती के उत्तर में नागरचोल, उत्तरपूर्व में स्यौपुरी, पूर्व तथा दक्षिण में मालवी बोली जाती है। 
  • अहीरवाटी (राठी) : ‘आभीर’ जाति के क्षेत्र की बोली होने के कारण इसे हीरवाटी या हीरवाल भी कहा जाता है। इस बोली के क्षेत्र को ‘राठ’ कहा जाता है इसलिए इसे राठी भी कहते हैं। यह मुख्यत: अलवर की बहरोड़ व मुंडावर तहसील, जयपुर की कोटपूतली तहसील के उत्तरी भाग, हरियाणा के गुड़गाँव, महेन्द्रगढ़, नारनौल, रोहतक जिलों एवं दिल्ली के दक्षिणी भाग में बोली जाती है। यह बाँगरु (हरियाणवी) एवं मेवाती के बीच की बोली है। जोधराज का हम्मीर रासौ महाकाव्य, शंकर राव का भीम विलास काव्य, अलीबख्शी ख्याल लोकनाट्य आदि की रचना इसी बोली में की गई है। 
  • मेवाती : अलवर एवं भरतपुर जिलों का क्षेत्र मेव जाति की बहुलता के कारण मेवात के नाम से जाना जाता है। अत: यहाँ की बोली मेवाती कहलाती है।  यह सीमावर्तिनी बोली है। उद्भव एवं विकास की दृष्टि से मेवाती पश्चिमी हिन्दी एवं राजस्थानी के मध्य सेतु का कार्य करती है। मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव बहुत अधिक दृष्टिगोचर होता है। लालदासी एवं चरणदासी संत सम्प्रदायों का साहित्य मेवाती भाषा में ही रचा गया है। चरणदास की शिष्याएँ दयाबाई व सहजोबाई की रचनाएँ इस बोली में हैं । स्थान भेद के आधार पर मेवाती बोली के कई रूप देखने को मिलते हैं, जैसे खड़ी मेवाती, राठी मेवाती, कठेर मेवाती, भयाना मेवाती, बीघोता मेवाती व ब्राह्मण मेवाती आदि। 
  • मालवी : यह मालवा क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। इस बोली में मारवाड़ी एवं ढूंढाड़ी दोनों की कुछ विशेषताएँ पायी जाती है। कहीं-कहीं मराठी का भी प्रभाव झलकता है। मालवी एक कर्णप्रिय एवं कोमल भाषा है। इस बोली का राँगड़ी रूप कुछ कर्कश है, जो मालवा क्षेत्र के राजपूतों की बोली है।
  • शेखावाटी : मारवाड़ी की उपबोली शेखावाटी राज्य के शेखावाटी क्षेत्र (सीकर, झुंझुनूं तथा चुरू जिले के कुछ क्षेत्र) में बोली जाने वाली भाषा है जिस पर मारवाड़ी एवं ढूंढाड़ी का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। 
  • नीमाड़ी : इसे मालवी की उपबोली माना जाता है। नीमाड़ी को दक्षिणी राजस्थानी भी कहा जाता है। इस पर गुजराती, भीली एवं खानदेशी का प्रभाव है। 
  • खैराड़ी : शाहपुरा (भीलवाड़ा) बूंदी आदि के कुछ इलाकों मे बोली जाने वाली बोली, जो मेवाड़ी, ढूंढाड़ी एवं हाड़ौती का  मिश्रण है। 
  • गौडवाडी : जालौर जिले की आहोर तहसील के पूर्वी भाग से प्रारम्भ होकर बाली (पाली) में बोली जाने वाली यह मारवाड़ी की उपबोली है। बीसलदेव रासौ इस बोली की मुख्य रचना है। बालवी, सिरोही, खणी, महाहड़ी इसकी उपबोलियाँ हैं। 
  • देवडावाटी : यह भी मारवाड़ी की उपबोली है जो सिरोही क्षेत्र मे बोली जाती है। इसका दूसरा नाम सिरोही है। 
  • रांगड़ी : मालवा के राजपूतों में मालवी एवं मारवाड़ी के मिश्रण से बनी रांगड़ी बोली भी प्रचलित है।  

महत्त्वपूर्ण तथ्य :

  • प्रसिद्ध इटालियन विद्वान एवं भाषाशास्त्री डॉ. एल.पी. तेस्सितोरी ने पश्चिमी राजस्थानी की उत्पत्ति शौरसेनी अपभ्रंश से बताई। श्री तेस्सितोरी ने अपना अधिकांश समय बीकानेर में ही गुजारा एवं वहीं उनका देहान्त हुआ। 
  • सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने राजस्थानी का उदभव शौरसैनी के नागर अपभ्रंश से होना प्रतिपादित किया। डॉ. पुरुषोत्तम मेनारिया भी इसी मत के समर्थक हैं। डॉ. सुनीति कमार चटर्जी इसकी उत्पत्ति शौरसैनी के सौराष्ट्री अपभ्रंश से बताते हैं। 
  • श्री कन्हैयालाल माणिक्यलाल मुंशी एवं डॉ. मोतीलाल मेनारिया राजस्थानी की उत्पत्ति शौरसैनी के गुर्जरी अपभ्रंश से मानते हैं। यही मत अधिक सही है।

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