राजपूतों का उदय : राजपूतों का आधिवासन एवं उत्पत्ति : origin of rajputs : राजपूतों का उदय

By | June 23, 2022
राजपूतों का उदय एवं उत्पत्ति

राजपूतों का अधिवासन

  • भारत में गुप्त साम्राज्य के पराभव के बाद छोटे-छोटे राज्यों का उदय हआ जो आपस में लड़ते रहते थे। इसके बाद कुछ समय के लिए सम्राट हर्षवर्धन ने इन्हें एक शासन के अधीन लाकर सुव्यवस्थित किया, परन्तु उसकी मृत्युपरांत वही अराजकता की सी स्थिति उत्पन्न होने लगी। बाद में राजस्थान व आस-पास के क्षेत्र में विभिन्न राजपूत वंशों का उदय हुआ, जिन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्थापना कर देश एवं समाज तथा जन सामान्य की उन्नति हेतु सुव्यवस्थित प्रशासन स्थापित किया। हर्षवर्धन के काल (6-7वीं सदी) से लेकर 12वीं सदा तक (मुस्लिम सल्तनत की स्थापना तक) के काल को भारतीय इतिहास में ‘राजपूत काल’ कहा जाता है। इन राजपूत समुदायों ने सर्वप्रथम राजस्थान के दक्षिण, दक्षिणपश्चिमी, दक्षिण-पूर्वी, उत्तरपश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी भाग में अपने अधिवासों की स्थापना की तथा इनमें से कुछ इस प्रदेश के भीतरी भागों में जाकर अपना शासन स्थापित करने में कामयाब रहे। तथा स्थानीय जाति समूहों यथा भील, मीणे, मेव, मेवाती, ब्राह्मण आदि से भारी प्रतिरोधों का सामना करना पड़ा और अंतत: ये अपना राज्य कायम करने में सफल रहे। 
  • राजस्थान में स्थापित हुए इन प्रारंभिक राजपूत समुदायों (वंशों) में मारवाड के प्रतिहार एवं राठौड़, सांभर के चौहान, मेवाड़ के गुहिल, भीनमाल एवं आबू के चावड़ा, आमेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी एवं वागड़ व आबू के परमार आदि प्रमुख हैं।

राजपूतों की उत्पत्ति (Origin of Rajputs)

  • राजपूत वंशों की उत्पत्ति के लेकर विभिन्न मत है। इस प्रकार राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में सभी इतिहासकार निम्न दो मतों में विभाजित हो गये हैं
  1. राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति का सिद्धान्त,
  2. राजपूतों की देशीय/स्थानीय उत्पत्ति का सिद्धांत।

1. राजपूतों की विदेशी उत्पत्ति के पक्षकार : प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने राजपूतों को विदेशी शक एवं सीथियन जातियों की संतान बताया है। वे अपने पक्ष में राजपूतों में प्रचलित बहुत से रीति-रिवाजों को प्रमाणस्वरूप उद्धृत करते हैं जो शक जाति के रीति-रिवाजों से साम्यता रखते हैं जैसे सूर्य की पूजा, सती प्रथा, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान, शस्त्रों व घोड़ों की पूजा आदि। डॉ. विसेंट.ए. स्मिथ, डॉ. विलियम क्रुक भी टॉड का समर्थन करते हुए इन्हें विदेशियों की संतान मानते हैं।

डॉ. डी. आर. (देवराज रामकृष्ण ) भण्डारकर ने राजपूतों को गुर्जर वंशीय माना है तथा बताया है कि भारत के उत्तरपश्चिम भाग में विस्तृत गुर्जर जाति का श्वेत-हूणों से निकट का संबंध था और डॉ. भण्डारकर इन दोनों (गुर्जर व श्वेत हूणों) को विदेशी मानते हैं। डॉ. ईश्वरी प्रसाद भी डॉ. भण्डारकर के मत के समर्थक हैं।

इस प्रकार राजपूतों को विदेशी मानने वाले विद्वानों की सूची निम्न है।

  • कर्नल जेम्स टॉड एवं विलियम कुक — शक एवं सीथियनों की संतान
  • डॉ. वी.ए. स्मिथ — शक-यूची-हणों की संतान
  • डॉ.डी.आर. भण्डारकर, डॉ. ईश्वरी प्रसाद  — गुर्जर वंशीय (श्वेत-हूणों के वंशज)
  • ए कनिंघम  —  यू ची (कुषाण) जाति के वंशज

2. राजपूतों की देशीय उत्पत्ति का सिद्धान्त : इस मत के समर्थक सभी इतिहासकार मानते हैं कि राजपूत यहीं (भारत) के निवासी हैं विदेशी नहीं।

इसमें राजपूतों की उत्पत्ति के भिन्न-भिन्न मत निम्न प्रकार हैं

अग्निकण्ड से उत्पति : ‘पृथ्वराज रासौ‘ में कवि चन्द्र बरदाई ने माना है कि राजपूतों के चार वंशा- गुर्जर-प्रतिहार , . चालुक्य (सोलंकी), परमार एवं चौहानों (चाहमान) की उत्पत्ति महर्षि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ के अग्निकण्ड से हई है। चन्द्रबरदाई के इस मत के समर्थक साहित्यकार महणोत नैणसी एवं कवि सूर्यमल्लमिश्रण है।

प्राचीन क्षत्रियों की संतान : यह सर्वाधिक स्वीकार्य मत है।

(a) सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी : पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवं डॉ. दशरथ शर्मा राजपूतों को प्राचीन सूर्य वंशी एवं चन्द्र वंशी क्षत्रियों की संतान मानते हैं। उनके अनुसार प्रतिहार, चौहान, गुहिल, राठौड़ आदि सूर्यवंशी तथा चालुक्य, यादव, भाटी, चन्द्रावती के चौहान आदि चन्द्रवंशी कुल से उत्पन्न हुए हैं।

(b) वैदिक आर्यों की संतान : सी.वी. वैद्य का मत है कि क्षत्रिय विशुद्ध वैदिक कालीन क्षत्रिय हैं। ऋग्वेद में जो चार वर्ण बताये गये हैं उनमें क्षत्रियों को ब्रह्मा (प्रजापिता) की भुजाओं से उत्पन्न बताया गया है। इस प्रकार राजपूत इन्हीं वैदिक क्षत्रियों की संतान हैं।

ब्राह्मणों से उत्पत्ति (ब्राह्मण वंशीय) : डॉ. डी. आर. भण्डारकर अपने दूसरे मत में राजपूतों को ब्राह्मणों से उत्पन्न हुआ मानते हैं । वे बिजोलिया शिलालेख को प्रमाण स्वरूप बताते हैं जिसमें कि वासुदेव चाहमान को वत्सगौत्रीय विप्र बताया गया है। इतिहासकार डॉ. गोपीनाथ शर्मा भी राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मण वंश से होने के पक्षधर हैं।

उपयक्त मतों के अलावा श्री बजलाल चट्टोपाध्याय ने राजपूतों को मध्यकाल में समाजिक-आर्थिक प्रक्रिया की उपज कहा है। जबकि श्री देवी प्रसाद चटोपाध्याय इनकी उत्पत्ति हेतु मिश्रित अवधारणा का उल्लेख करते हैं जिसमें कुछ राजपूतों की उत्पत्ति भारत में आई विदेशी जातियों के यहाँ के क्षत्रियों से मेल-मिलाप से हुई है। श्री वी.ए. स्मिथ ने अपने एक अन्य मत में राजपूतों को यहाँ की प्राचीन आदिम जातियों यथा-गोंड खोल आदि से उत्पन्न हुआ माना है।

राजपूतों की उत्पत्ति के विभिन्न मतों की संक्षिप्त सारण

(विदेशियो से उत्पति)

1. शक-सीथियनों से कर्नल जेम्स टॉड, विलियम क्रुक
2. गुर्जर वंशीय-श्वेत-हूणों सेडॉ. डी. आर. भण्डारकर, डॉ. ईश्वरी प्रसाद
3. शक-यूची, गुर्जर-हूणों सेवी.ए. स्मिथ
4. यूची (कुषाणों) सेअलेक्जेण्डर कनिंघम

(भारतीय (देशीय) उत्पत्ति)

1. अग्निकुण्ड सेचन्द्र बरदाई, मुहणोत नैणसी, सूर्यमल्ल मिश्रण
2. प्राचीन क्षत्रियों सूर्यवंशी व चंद्रवंशीडॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डॉ. दशरथ शर्मा
3. वैदिक आर्यों की संतानसी.वी.वैद्य
4. ब्राह्मण वंश सेडॉ. डी. आर. भण्डारकर, डॉ. गोपीनाथ शर्मा
5. मिश्रित उत्पत्ति का मतडॉ. देवी प्रसाद चटोपाध्याय
6. आदिम जातियों- गोंड, खोखर,
भर आदि से
वी. ए. स्मिथ

विद्वान डॉ. गौरी शंकर हीराचंद ओझा के मत (प्राचीन सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी क्षत्रियों के वंशज) राजपूतों की उत्पत्ति का सर्वाधिक मान्य मत है।

गुहिलों की उत्पत्ति

गुहिल वंश की उत्पत्ति के संबंध में इतिहासकार एकमत नहीं हैं।

  • डॉ. डी. आर. भण्डारकर इन्हें विप्रदंशीय नागर ब्राह्मण वंश से उत्पन्न हुआ मानते हैं,
  • डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा गुहिलों को सूर्यवंशी क्षत्रियों की संतान मानते हैं।
  • अबुल फजल ने इन्हें ईरान के बादशाह नौशेखाँ आदिल का वंशज (संतान ) बताया है
  • जबकि मुहणौत नैणसी इन्हें आदिरूप में ब्राह्मण एवं जानकारी से क्षत्रिय बताते हैं।
  • कर्नल जेम्स टॉड ने गुहिलों को विदेशियों की संतान कहा है।
  • डॉ. स्मिथ ने भी गुहिलों के विदेशी होने की बात कही है।
  • जैन ग्रंथों में गुहिल को वल्लभी के शासक शिलादित्य की रानी पुष्पावती से उत्पन्न संतान बताया गया है, जो गुफा में पैदा होने के कारण गोह, गुहिल या गुहादत्त कहलाया।
  • कविराज श्यामलदास भी गुहिलों को वल्लभी से आना स्वीकार करते हैं तथा इन्होंने गुहिलों को क्षत्रियों की 36 शाखाओं में से एक बताया है।
  • इतिहासकार डॉ. गोपीनाथ शर्मा इन्हें ब्राह्मण वंशीय मानते हैं ।

गुर्जर-प्रतिहारों की उत्पत्ति (7वीं से 12वीं सदी)

राजस्थान के 7वीं से 8वीं सदी के राजस्थान प्राप्त शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों में प्रतिहार (गुर्जर प्रतिहार) शासकों के उल्लेख बहुत अधिक संख्या में प्राप्त होते हैं जिससे अनुमान लगाया जाता है कि प्रतिहारों ने अपने वंश के शासन का प्रारंभ सर्वप्रथम राजस्थान में ही किया होगा। छठी शताब्दी के लगभग से राजस्थान का दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र गुर्जरात्रा कहलाता था। गुर्जरात्रा प्रदेश के शासक होने के कारण धीरे-धीरे इन्हें गुर्जर-प्रतिहार कहा जाने लगा।

  • भगवान लाल इन्द्र जी : प्रतिहार गुजर थे जो कुषाण शासक कनिष्क के शासनकाल में पश्चिमोत्तर भागों से होकर विदेशों से यहाँ आये तथा यहीं बस गये। गुजरात राज्य में रहने के कारण ये गुर्जर कहलाये।
  • हर्ष के समय भारत की यात्रा पर आये चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भीनमाल (पीलोमोलो, भीलामाला) को गुर्जर साम्राज्य की राजधानी बताया है। 
  • मिस्टर जैक्सन ने बॉम्बे गजेटियर में प्रतिहारों को विदेशी बताया है, जो गुजरात में आकर बस गये। अत: गुर्जर-प्रतिहार कहलाये। 
  • कवि चन्द्रबरदाई ने अपने ग्रंथ पृथ्वीराज रासौ में प्रतिहारों को गुरु वशिष्ठ के आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुआ माना है।
  •  विद्धशालभंजिका नामक ग्रंथ में राजशेखर ने अपने शिष्य प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल को ‘रघुकुल तिलक’ एवं ‘रघुकुल चूड़ामणि’ तथा सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है तथा महेन्द्रपाल प्रथम को ‘रघुवंश मुकुटमणि’ एवं ‘रघुकुल मक्तामणि’ का विरुद दिया है। 
  • डॉ. गौरीचन्द हीराचंद ओझा प्रतिहारों को भारत के ही प्राचीन क्षत्रियों (सूर्यवंशी) की संतान (वंशज) मानते हैं। 
  •  कैनेडी ने प्रतिहारों को ईरानी मूल का बताया है
  •  हर्नले, वी.ए. स्मिथ एवं ब्यूलर आदि विद्वान प्रतिहारों को विदेशी हूणों की संतान बताते हैं 
  • इतिहासकार बैजनाथ पुरी ने गुर्जर-प्रतिहारों को विदेशी न मानकर राजपूताना के किसी भू-भाग का मानते हैं। उनका तर्क है कि ब्राह्मणों में भी गुर्जर ब्राह्मण होते हैं जो कि राजस्थान में पाये जाते हैं। 
  • डॉ. डी.आर. भण्डारकर ने तो राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी गुर्जर जातियों से मानी है। 
  • प्रसिद्ध इतिहासविद् ए.कनिंघम ने प्रतिहारों को शकों एवं यू-ची आदि विदेशी जातियों का वंशज बताया है

राठौड़ वंश का अभ्युदय (Origin of Rathores)


संस्कृत के ‘राष्ट्रकूट’ शब्द से राठौड़ शब्द का आविर्भाव हुआ है। प्राचीन समय में राष्ट्रकूटों का शासन महाराष्ट्र एवं उसके आसपास के भू-भागों पर था। इस प्रकार राठौड़ वंश का संबंध दक्षिण-पश्चिम भारत की राष्ट्रकूट जाति से माना जा सकता है।

राठौड़ों की उत्पत्ति का मामला अभी तक भी विवादास्पद है। इनकी उत्पत्ति से संबंधित प्रमुख मत निम्न हैं

  • राजस्थानी साहित्यकार दयालदास ने राठौड़ों को सूर्यवंशी बताया है तथा इन्हें ब्राह्मणवंश के भल्लराव का वंशज बताया है।
  • मुहणौत नैणसी ने राठौड़ों को कन्नौज से आना सिद्ध किया है।
  • कर्नल जेम्स टॉड ने राठौड़ों की वंशावलियों के आधार पर इन्हें सूर्यवंशीय कुल की संतान कहा है।
  • राज रत्नाकार ग्रंथ में एवं कुछ भाट साहित्यकारों ने इन्हें दैत्यवंशी हिरण्यकश्यप का वंशज बताया है।
  • जोधपुर राज्य की ख्यात में राठौड़ों को राजा विश्वुतमान के पुत्र राजा वृहद्बल की संतान बताया है।
  • राठौड़ वंश महाकाव्य (1596 ई.) के अनुसार राठौड़ों की उत्पत्ति शिवजी के सिर पर स्थित चन्द्रमा से हुई है।
  • राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष (प्रथम) के समय के कोन्नूर के शिलालेख (वि.सं.917) व राठौड़ गोविंदराज के समय के खंभात के ताम्रपत्र (वि.सं. 987) में राठौड़ों को चन्द्रवंशी बताया गया है।

राठौड़ वंश की शाखाएँ 

  • दक्षिण कि राष्ट्रकूटों की वंशावली छठी सदी के प्रतापी शासक दंतिवर्मा से शुरू होती है।
  • गुजरात के राष्ट्रकूटों की दूसरी शाखा का प्रारंभ इन्द्रराज से होता है।
  • काठियावाड़, बदायूं, कन्नौज आदि में 7वीं-8वीं सदी में राष्ट्रकूटों का शासन था।
  • राजस्थान के राठौड़ : राजस्थान में राठौड़ों की चार शाखाएँ थीं 1. हस्तिकुण्डी के राठौड़, 2. धनोप के राठौड़, 3. वागड़ के राठौड़, 4. जोधपुर-बीकानेर के राठौड़।

जोधपुर के राठौड़ वंश का मूल स्थान

जोधपुर के राठौड़ शासकों के मूल स्थान के बारे में इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है। इनकी उत्पत्ति के विभिन्न मत निम्न हैं

  1. मूल निवास कन्नौज : मुहणोत नैणसी इन्हें कन्नौज से आया हुआ मानते हैं। प्रसिद्ध लेखक दयालदास सिंढायच ने भी ‘बीकानेर रा राठौड़ां री ख्यात’ में इनको कन्नौज से आना बताया है। जोधपुर की ख्यात’ में भी इन्हें कन्नौज से आया हुआ बताया गया है। पृथ्वीराज रासौ में कवि चन्द्र बरदाई ने भी इन्हें कन्नौज के शासक जयचंद गहड़वाल का वंशज बताया है। कर्नल जेम्स रॉड ने भी विभिन्न ख्यातों को आधार मानते हुए राठौड़ों को जयचंद गहड़वाल का वंशज पाना है। पं. विश्वेश्वर नाथ रेउ भी इसी मत का समर्थन करते हैं। 
  2.  खदायूँ के राष्ट्रकूटों ( राठौड़ों) के वंशज : इतिहासकार डॉ. हार्नली एवं डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने जोधपुर के राठौड़ों को खदायू के राष्ट्रकूटों ( राठौडों ) का वंशज बताया है। बदायूं के राष्ट्रकूटों का प्रर्वतक चन्द्र था। ये विद्वान रागैड़ों एवं कन्नौज के गहड़वालों को भिन्न-भिन्न मानते हैं। इनके अनुसार गहड़वाल तो सूर्यवंशी थे जबकि राठौड़ चंदवशी हैं। अलग अलग मतों के होते हुए भी अधिकांश विद्वान जोधपुर के राठौड़ वंश के मूल पुरुष (संस्थापक) राव सोहा को कन्नौज से आया मानते हैं।

चौहानों की उत्पत्ति

जिस प्रकार राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में अभी तक किसी मत का सही निर्धारण नहीं हो पाया है, उसी प्रकार चौहानों का उत्पत्ति के बार में भी इतिहासकार अभी एकमत नहीं हो पाये हैं। चौहानों की उत्पत्ति के अलग-अलग मत निम्न हैं।

  • अग्निकुण्ड से उत्पत्ति: कुछ लेखक एवं इतिहासकार मानते हैं कि महर्षि वशिष्ठ द्वारा आब पर्वत पर किये गये। यज्ञ के अग्निकुण्ड से चार राजपूत यौद्धाओं-प्रतिहार, सोलंकी, परमार एवं चौहान का आविर्भाव हुआ। इस मत के समर्थक हैं-कवि चन्द्रबरदाई (पृथ्वीराज रासौ), कवि सूर्यमल्ल मिश्रण, मुहणोत नैणसी। 
  • ब्राह्मण वंश से उत्पत्ति : बिजोलिया शिलालेख, डॉ. दशरथ शर्मा, डॉ. गोपीनाथ शर्मा, कायमखानी रासो। 
  • सूर्यवंशी क्षत्रियों की संतान : पं. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, पृथ्वीराज विजय, हम्मीर महाकाव्य, हम्मीर रासौ, सुर्जन चरित, बेदला शिलालेख, चौहान प्रशस्ति आदि। 
  • चन्द्रवंशी : आबू के अचलेश्वर मंदिर का अभिलेख (1320 ई.), हाँसी शिलालेख। 
  • इन्द्र के वंशज : चौहानों का सेवाड़ी अभिलेख। 
  • खज़ जाति से उत्पत्ति : डॉ. डी.आर. भण्डारकर। 
  • विदेशी जातियों (शक-सीथियन) से उत्पत्ति : कर्नल जेम्स टॉड, विलियम क्रुक, वी.ए. स्मिथ।

कछवाहों की उत्पत्ति

कछवाहा वंश की उत्पत्ति के संबंध में निम्न मत प्रचलित हैं

  • कछवाहा स्वयं को भगवान राम के पुत्र कुश का वंशज (रघुवंशी) बताते हैं।
  • कुछ विद्वान जैसे जनरल कनिंघम आदि कच्छवाहा एवं कच्छपघट को एक ही मानते हैं। वे इन दोनों शब्दों के अर्थ में कोई भेद नहीं बताते। इनके विचार में ‘कच्छपघट’ का विकृत रूप ही कछवाहा है, जो सामान्य बोलचाल की भाषा में धीरे-धीरे कच्छपघट से कछवाहा बन गया। 
  •  इसके विपरीत ‘स्ट्रगल फॉर एम्पायर’ पुस्तक में कच्छवाहों का कच्छपघटों की तीनों शाखाओं से किसी प्रकार का संबंध नहीं होना निर्धारित किया गया है। अतः यह पुस्तक इन दोनों को अलग-अलग मानती है।
  • कुछ इतिहासकारों का मत है कि कच्छवाहों की कुल देवी कच्छवाहिनी थी जिसके नाम पर इस वंश का नाम भी कच्छवाहा पड़ा। 
  • बूंदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मिश्रण का मत है कि किसी कूर्म नामक रघुवंशी शासक के वंशज होने के कारण ये कूर्मवंशीय कहलाने लगे जो धीरे-धीरे बोलचाल की भाषा में कच्छवाहा हो गया। 
  • डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा का मत है कि किसी मूल पुरुष से इस वंश के राजपूतों को कछवाहा कहा जाने लगा। अधिकांश विद्वानों का मत है कि ढूंढाड़ के कछवाहा का मूल पुरुष ग्वालियर प्रदेश से यहाँ आया था तथा अपने वंश का शासन स्थापित किया था।

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